BhamaShah Biography : राजस्थान की वीर भूमि पर अनेक वीरों ने जन्म लिया, लेकिन भामाशाह जैसा दानवीर और राष्ट्रभक्त बिरला ही होता है। भामाशाह का नाम भारत के इतिहास में त्याग, बलिदान और निष्ठा की मिसाल के रूप में अमर है। उनके योगदान के बिना महाराणा प्रताप की वीरगाथा अधूरी रह जाती। आइए जानते हैं दानवीर भामाशाह के जीवन, संघर्ष और राष्ट्र सेवा की अद्भुत कहानी।
भामाशाह का जन्म और परिवार:
भामाशाह जी का जन्म 29 अप्रैल 1547 को राजस्थान के मेवाड़ राज्य में पाली जिले के सादड़ी गांव में हुआ था। कुछ ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार उनका जन्म चित्तौड़गढ़ में 28 जून 1547 को हुआ था। वे एक प्रतिष्ठित और समृद्ध व्यापारी परिवार से थे। उनके पिता भारमल जी को राणा सांगा द्वारा रणथम्भौर किले का किलेदार नियुक्त किया गया था। माता कर्पूरदेवी थीं। भामाशाह का परिवार व्यापार के साथ-साथ राष्ट्रसेवा और सैन्य सेवा में भी अग्रणी था।
BhamaShah और महाराणा प्रताप:
भामाशाह की देशभक्ति और त्याग भावना का सबसे बड़ा प्रमाण तब मिला जब महाराणा प्रताप मुगलों से युद्ध करते-करते आर्थिक रूप से पूरी तरह टूट चुके थे। राणा प्रताप का परिवार जंगलों में रहकर कंदमूल खाकर जीवन यापन कर रहा था। उस कठिन दौर में भी राणा प्रताप ने हार नहीं मानी, लेकिन उन्हें अपनी सेना के संचालन के लिए धन की आवश्यकता थी।
भामाशाह ने इस संकट की घड़ी में न केवल अपनी समस्त संपत्ति महाराणा प्रताप के चरणों में अर्पित कर दी, बल्कि उस धन से राणा प्रताप 25,000 सैनिकों की सेना 11 वर्षों तक चला सकते थे।

भामाशाह ने कहा था, “यह धन देश की सेवा में लगे तो मेरा जीवन धन्य हो जाएगा।” उनका यह समर्पण न केवल आर्थिक रूप से बल्कि नैतिक रूप से भी राणा प्रताप को बल देने वाला था।
भामाशाह की रणनीतिक भूमिका:
भामाशाह सिर्फ दानवीर ही नहीं थे, बल्कि एक कुशल सेनापति और रणनीतिकार भी थे। उन्होंने कई महत्वपूर्ण युद्धों में राणा प्रताप के साथ सक्रिय भागीदारी की। उन्होंने हल्दीघाटी युद्ध के बाद राणा की सेना को संगठित करने और नई सैन्य योजनाएं तैयार करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
अकबर और भामाशाह:
अकबर को जब पता चला कि Bhamashah ने राणा प्रताप की आर्थिक मदद की है, तो वह क्रोधित हो गया। उसने भामाशाह को बंदी बनाने का प्रयास किया, लेकिन ये सोचकर पीछे हट गया कि इससे व्यापारी वर्ग उसके खिलाफ हो सकता है। इससे भामाशाह की लोकप्रियता और बढ़ गई।
महाराणा प्रताप की वापसी:
Bhamashah के दिए गए धन से राणा प्रताप ने अपनी सेना को दोबारा संगठित किया और कई मुगल क्षेत्रों पर पुनः कब्जा कर लिया। वे पुनः मेवाड़ का अधिकांश हिस्सा मुगलों से मुक्त कराने में सफल रहे। इस ऐतिहासिक योगदान में भामाशाह की भूमिका सर्वोपरि थी।
जीवन भर सेवा:
Bhamashah जीवन भर महाराणा प्रताप के साथ रहे। 1597 में जब राणा प्रताप का देहावसान हुआ, तो भामाशाह ने उनके पुत्र अमरसिंह के राज्याभिषेक में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने अपने पुत्र को आदेश दिया कि वे अमरसिंह के प्रति वही निष्ठा और समर्पण बनाए रखें जैसा उन्होंने महाराणा प्रताप के लिए रखा।

भामाशाह का निधन:
भामाशाह का देहांत 16 जनवरी 1600 को 53 वर्ष की आयु में हुआ। उनका जीवन भारतीय इतिहास में आदर्श देशभक्ति और त्याग की गाथा है। उनकी स्मृति में भारत सरकार ने 31 दिसंबर 2000 को एक डाक टिकट जारी किया। चित्तौड़गढ़ में स्थित उनकी हवेली और हरियाणा के अग्रोहा में उनके सम्मान में निर्मित स्मारक आज भी उनकी वीरता और दानशीलता की गवाही देते हैं।
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दानवीर की उपाधि क्यों?
भामाशाह को दानवीर इसलिए कहा जाता है क्योंकि उन्होंने राष्ट्र रक्षा के लिए अपनी पूरी संपत्ति बिना किसी संकोच या शर्त के अर्पित कर दी। उनकी दानवीरता सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि नैतिक, रणनीतिक और आत्मिक स्तर पर भी थी। उन्होंने न केवल राणा प्रताप की सहायता की, बल्कि मातृभूमि की रक्षा के लिए स्वयं को पूरी तरह समर्पित कर दिया।
भामाशाह जैसे नायक हमें ये सिखाते हैं कि राष्ट्रसेवा केवल युद्धभूमि में नहीं होती, बल्कि आर्थिक, सामाजिक और नैतिक सहयोग से भी की जा सकती है। जब देश संकट में हो, तब अपना सर्वस्व अर्पित कर देना ही सच्ची देशभक्ति है।
दानवीर भामाशाह की जीवनी हर भारतीय के लिए प्रेरणा स्रोत है। उनका जीवन ये संदेश देता है कि जब राष्ट्र संकट में हो, तो हर नागरिक का दायित्व है कि वो देश की रक्षा में अपना योगदान दे। आज के युवाओं को भामाशाह के जीवन से प्रेरणा लेकर राष्ट्र निर्माण में भूमिका निभानी चाहिए।
उनके लिए विशेष पंक्तियाँ समर्पित हैं:
वो धन्य देश की माटी है, जिसमें भामा सा लाल पला।
उस दानवीर की यशगाथा को, मेट सका क्या काल भला॥
जय हिंद!
जय दानवीर भामाशाह!